(पं. रतनचंद जैन मुख्तार व्यक्तित्व और कृतित्व) आदिनाथ बाहुबली आदि कर्मभूमिया थे। 1) शंका : श्री नाभिराय, श्री भगवान आदिनाथ, श्री बाहुबली, श्री भरत आदि तीसरे काल में ही जन्मे हैं। वे भोगभूमि के जीव कहे जा सकते हैं या नहीं? समाधान : जिन जीवों की आयु एक कोटि पूर्व से अधिक होती है, वे भोगभूमिया मनुष्य व तिर्यंच जीव होते हैं और जिन मनुष्यों या तिर्यंचों की आयु एक कोटिपूर्व है, वे कर्म भूमिया हैं। (धवल पुराण पृ. 169-170) श्री नाभिराय की आयु एक कोटि पूर्व की थी। कहा गया है- पणवीसुत्तर पणसयचाउच्छे हो सुवण्णवण्णणिहो। इगिपुन्य कोडि आयु मरुदेवीणाम तस्य वध अर्थ - श्री नाभिराय मनु पांच सौ पच्चीस धनुष ऊंचे, सुवर्ण के सदृश वर्ण वाले और एक पूर्व कोटि आयु से युक्त थे। उनके मरुदेवी नाम की पत्नी थी। श्री नाभिराय, श्री भगवान आदिनाथ, श्री बाहुबली, श्री भरत की आयु एक कोटि पूर्व से अधिक नहीं थी। इसलिए ये कर्म भूमिया मनुष्य थे। बाहुबली नि:शल्य थे। शंका : क्या बाहुबली के शल्य थी, इसलिए उनके सम्यक्त्व में कमी थी? समाधान : श्री बाहुबली सर्वार्थसिद्धि से चयकर उत्पन्न हुए थे। कहा भी है - ‘‘ आनंद पुरोहित का जीव जो पहले महाबाहु था और फिर सर्वार्थसिद्धि में अहमिंद्र हुआ, वह वहां से च्युत होकर भगवान वृषभदेव की द्वितीय पत्नी सुनंदा के बाहुबली नाम का पुत्र हुआ था।’’ (महापुराण पर्व 16 श्लोक 6) जो जीव सर्वार्थसिद्धि से चय कर मनुष्य होता है। वह नियम से सम्यकदृष्टि होता है। (धवल पु. पृ.500) अत: यह कहना कि श्री बाहुबली के सम्यकत्व में कमी थी, ठीक नहीं है। तप के कारण बाहुबली को सर्वावधि तथा विपुलमतिमन: पर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया था। महापुराण पर्व 36 श्लोक 147, अत : श्री बाहुबली के शल्य नहीं थी क्योंकि ‘‘नि:शल्यो व्रती’’।।18।। (त.सू.अ.7) श्री बाहुबली के हृदय में विद्यमान रहता था कि ‘भरतेश्वर मुझसे संक्लेश को प्राप्त हुआ है।’ इसलिए भरतजी के पूजा करने पर उनको केवल ज्ञान उत्पन्न हो गया। (महापुराण पर्व 36 (186)) 1) केवल ज्ञान होते ही बाहुबली का उपसर्ग दूर हो गया था। 2) केवल ज्ञान होने पर छिन्न-भिन्न अंगोपांग भी पूर्ववत् पूर्ण हो जाते हैं। शंका : क्या बाहुबली को केवल ज्ञान होते ही लताएं टूट गई थीं। सिंह आदि के द्वारा यदि किसी मुनि का शरीर खाया गया हो अथवा बेड़ी आदि पड़ी हो या शरीर का कुछ भाग दग्ध हो गया हो तो ऐसे मुनि को केवल ज्ञान होते ही क्या वह शरीर पूर्ण हो जाएगा? शंका का तात्पर्य यह है कि केवल ज्ञान होने के पश्चात् उपसर्ग तो दूर हो जाते हैं किंतु उपसर्ग काल में जो अंग उपांग क्षीण हो जाते हैं, क्या वे भी पूर्ण हो जाते हैं? समाधान : केवल ज्ञान उत्पन्न होते ही शरीर परमौदारिक हो जाता है और जिनेंद्र संज्ञा हो जाती है। उस शरीर के विषय में श्री अमृतचंद्र आचार्य ने समयसार कलश 26 में इस प्रकार कहा है- नित्य विकार सुस्थितसर्वांगपूर्णसहजलावण्यम्। अक्षोभमिय समुद्रं जिनेंद्ररूपं पर जयति।।26।। इस श्लोक में ‘जिनेंद्ररूप’ अर्थात् जिनेंद्र के शरीर का वर्णन करते हुए एक विशेषण ‘सर्वांगम्’ दिया है, जिसका अभिप्राय यह है कि जिनेंद्र का शरीर सर्वांग पूर्ण होता है। यदि ऐसा न माना जाए तो सिद्धावस्था में भी आत्मप्रदेशों के आकार को अंगहीन मानने का प्रसंग आ जाएगा, क्योंकि सिद्ध जीव का आकार चरम शरीर के आकार से कुछ न्यून होता है। यदि उपसर्ग-केवली के ही उस विवक्षित अंग की पूर्ति नहीं होती तो सिद्ध जीव के आकार में उस अंग की पूर्ति कैसे संभव होगी? सिद्धों का आकार किंचित् ऊन चरम शरीर के आकार प्रमाण होता है, यह बात निम्नलिखित आर्ष ग्रंथों से सिद्ध हो जाती है- ण__कम्मदेहो लोया लोयस्स जाण द_ा। पुरिसायारो अप्पा सिद्धो झाएह लोयसिहख्यो।।51।। (दू.स.) इस गाथा में सिद्धों के स्वरूप का वर्णन करते हुए सिद्धों को ‘पुरिसायारो’ कहा है। जिसका अर्थ संस्कृत टीकाकार ने इस प्रकार किया है- ‘‘ किश्चिदून चरमशरीराकारेणगत सिक्थ मूषगर्भाकारवच्छाया प्रतिमाबद्धा पुरुषाकार :’’ अर्थात् सिद्धों का आकार अंतिम शरीर के आकार से कुछ कम होता है। मोमरहित मूष के बीच के आकारवत् अथवा छाया के प्रतिबिंब के समान सिद्धों का आकार है। पिक्कम्मा अठ्ठगुणा किंचूणा चरमदेहदो सिद्धा। लोयग्गठिदा णिच्चा उत्पादवएहिं संजुत्ता।।14।। द्र.सं. यहां ‘सिद्धा चरमदेह दो किंचूणा’ से भी यही कहा गया है कि सिद्धों का आकार चरमशरीर के आकार से कुछ ऊन(न्यून) होता है। गव्यूतस्तत्र चोध्र्वायास्तुर्ये भागे व्यवस्थिता:। अन्त्यकायप्रमाणात्तु, किंचित्संकुचितात्मका:।। 11/6 लोक विभाग यहां पर भी ‘अन्त्यकायप्रमाणात्तु’ द्वारा यह कहा गया है कि अंतिम शरीर के आकार के प्रमाण से कुछ संकुचित(हीन) आकार सिद्धात्मा का होता है। इन आर्ष गं्रथों के आधार से यह सिद्ध हो जाता है कि केवल ज्ञान होने पर परमौदारिक शरीर में सर्वांगोपांग पूर्व हो जाते हैं और उसी के आकाररूप सिद्धों का आकार होता है। (केवल ज्ञान होने पर बाहुबली की लताएं हट गई थीं, क्योंकि केवल ज्ञान अवस्था में उपसर्ग नहीं रहता।) ज.ला. जैन, भींडर: पत्र-सन् 77-78 [if !supportLineBreakNewLine] [endif]