जब युग का परिवर्तन हो रहा था । मानव दुख से सुख की ओर बढ़ रहा था। भोग भूमि से कर्म भूमि की ओर काल का परिवर्तन हो रहा था। प्रजा को अब एक मार्गदर्शक की आवश्यकता थी, जो उसे कर्म भूमि की व्यवस्था बता सके। इसके पहले 14 कुल का जन्म हुआ, जिन्होंने प्रकृति के बारे में बताया और उसका भय दूर किया। अंतिम कुलकर नभिराय से आदिनाथ का जन्म हुआ, वही इस प्रजा के रक्षक बने। उन्होंने परिवार की परिभाषा बताई, एकजुट रहने की शिक्षा दी, राज्य व्यवस्था के बारे में प्रजा को बताया। धर्म-कर्म का पाठ पढ़ाया। नाभिराय की यशस्वती और सुनन्दा नाम की दो रानी थीं। यशस्वती से भरत आदि निन्यानबे पुत्र तथा ब्रह्मी नाम की पुत्री और सुनन्दा से बाहुबली और सुन्दरी नाम की पुत्री का जन्म हुआ। आदिनाथ भगवान की कुल 102 संतानें थी। आदिनाथ भगवान की संतान भरत को प्रथम चक्रवर्ती, बाहुबली को प्रथम कामदेव, ब्रह्मी को प्रथम आर्यिका और अनंतवीर्य को प्रथम मोक्ष जाने का सौभाग्य मिला था। स्वयं आदिनाथ भगवान प्रथम तीर्थंकर पद को प्राप्त ुहुए थे। भगवान आदिनाथ ने अपने बच्चों को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों के अनुसार जीवन यापन और आत्मकल्याण की अलग-अलग प्रकार से विद्या ज्ञान दिया था। हम इस आलेख में बाहुबली के वर्णन को आपके सामने रखेंगे। यह वर्णन सम्पूर्ण तो नहीं हो सकता फिर भी बाहुबली के जीवन प्रकाश डालने का पुरुषार्थ किया है। विद्या के नाम
भगवान बहुबली को कामनीति, स्त्री-पुरुषों के लक्षण, आयुर्वेद, धनुर्वेद, घोड़ा-हाथी आदि के लक्षण जानने के तंत्र और रत्न परीक्षा आदि के शास्त्र, चित्रकला, ज्योतिष विद्या अनेक प्रकार के बड़े-बड़े अध्यायों के द्वारा सिखलाए, इसके अलावा और भी विद्या पिता ने दी। अन्य पुत्रों और पुत्रियों को अलग-अलग विद्या का ज्ञान दिया। बाहुबली के अन्य नाम भगवान बाहुबली, आदिपुष, आदि ब्रह्मा ऋषभदेव के सुपुत्र,आद्य चक्रवर्ती भरत के अनुज, रत्नगर्भा मां सुनन्दा के दुलारे, आद्या सतीद्वय ब्राह्मी-सुन्दरी के भाई, युग के प्रथम कामदेव, स्वतंत्रचेता, स्वाभिमान के मेरु, स्वाधीनता के महाबाहु, संसार देह भोगों से विरक्त, वर्षोपवासी परम तपस्वी, तीर्थंकर ऋषभदेव से पहले निर्वाण प्राप्तकर्ता, योगीराज बाहुबली, गोम्टेश आदि प्रसिद्ध हैं, वह श्रवणबेलगोला के कारण ही हैं।
विशेषताएं तीर्थंकर नहीं होते हुए भी बाहुबली भगवान की विशाल मूर्तियों की स्थापना की गई। बाहुबली भगवान के प्रति आम जनता में अकाट्य श्रद्धा और विश्वास है। तीर्थंकरों की प्रतिमा के साथ उन्हें लगाया जाता है। बाहुबली व्यक्तित्व कुछ ऐसा ही था, जिन्होंने सर्व प्रथम अहिंसा युद्ध का समर्थन किया और अहिंसा युद्ध करने को तत्पर हो गए। अहिंसा युद्ध ने अपने बड़े भाई भरत से विजय होने के बाद सब कुछ छोड़ संन्यास मार्ग को अपना कर ध्यानस्थ हो गए। भरत से युद्ध का कारण भी एक ही था कि बाहुबली अपने पिता के द्वारा दिए राज्य को चक्रवर्ती भरत को देने के लिए तैयार नहीं थे। वह एक चक्रवर्ती को नमस्कार करने को तैयार नहीं थे। भाई के नाते तो राज्य देने के साथ ही हजारों बार प्रणाम करने को तैयार थे पर एक चक्रवर्ती के नाते राज्य को नमस्कार करने को तैयार नहीं थे। यह अहिंसा युद्ध भी अपने अभिमान को कायम रखने के लिए, पिता के द्वारा दिए राज्य को गुलाम बनाने तैयार नहीं, न्याय के लिए अपने भाई से युद्ध को तैयार और हिंसा नहीं हो तो अहिंसा युद्ध का समर्थन करते हुए मल युद्ध, जल युद्ध और दृष्टि युद्ध के द्वारा हार और जीत का निर्णय करने को तैयार हुए। चक्रवर्ती द्वारा पूजन भरत चक्रवर्ती ने रत्नों से बने अघ्र्य द्वारा तथा गंगा के जल की धारा दी, रत्नों की ज्योति के दीपक चढ़ाए थे, मोतियों से अक्षत की पूजा की थी, अमृत के पिण्ड से नेवैद्य अर्पित किया था, कल्पवृक्ष के टुकड़ों (चूर्णों) से धूप की पूजा की थी, पारिजात आदि देववृक्षों के फूलों के समूह से पुष्पों की अर्चना की थी और फलों के स्थान पर रत्नों सहित निधियां चढ़ा दी थीं। इस प्रकार भरत चक्रवर्ती द्वारा रत्न पूजा की गई थी। दुग्धाभिषेक की परम्परा
प्रतिष्ठा के अवसर पर गोम्मटेश भगवान बाहुबली के दुग्धाभिषेक के समय गुल्लिका अज्जी का जो अतिशय हुआ, उससे भगवान के दुग्धाभिषेक का महत्व जनमानस में स्थापित हो गया। दूर-दूर से आकर बड़ी आस्था और भक्ति के साथ, भक्त जन गोम्मटेश के चरणों का दुग्धाभिषेक करने लगे। सैकड़ों ने पाद-पूजा और अभिषेक की स्थाई व्यवस्था के लिए मठ को भूमि, स्वर्ण और अन्य मूल्यवान वस्तुओं का दान दिया। अनेक शिलालेखों में ऐसे दान के उल्लेख यहां प्राप्त हुए हैं।