वर्तमान समय में दिगंबर मुनियों की परंपरा को स्थापित करने वाले बीसवीं सदी के प्रथम दिगंबराचार्य 108 श्री शांति सागर जी महाराज सन् 1925 में आयोजित भगवान बाहुबली के महामस्तकाभिषेक समारोह में सम्मिलित होने कुंभोज बाहुबली महाराष्ट्र से पद विहार कर श्रवण बेलगोला पधारे थे। आचार्य श्री शांति सागर जी महाराज, जिनकी एक झलक बाने के लिए जैन जगत लालायित रहता है, उस समय श्रवण बेलगोला पधारे तो तत्कालीन भट्टारक श्री चारुकीर्ति जी स्वामी पंडिताचार्य ने आचार्य संघ की भावभीनी आगवानी की और सारा नगर उनकी आगवानी में सराबोर हो गया था। आचार्य श्री के साथ पूज्य मुनि श्री वीर सागर जी महाराज एवं अन्य क्षुल्लक जी महाराज व ब्रह्मचारी गण भी आए थे। आचार्य श्री के आगमन से प्रभावित देश से उस समय सीमित साधनों में ही श्रावकों ने प्रभावी उपस्थिति दर्ज कराकर जैन धर्म की पताका लहराई थी। आचार्य श्री के श्रवण बेलगोला आगमन की खबर से पुलकित आचार्य श्री शांति सागर जी महाराज को दीक्षा देने वाले गुरु मुनि श्री देवेंद्र कीर्तिजी महाराज भी श्रवण बेलगोला आए और उन्होंने आचार्य श्री की निर्दोष चर्या व जैनागम के प्रकांड विद्वान के रूप में उन्हें जाना। जब उन्होंने अपनी चर्या से आचार्य श्री की चर्या की तुलना की तो पाया कि मैं जिस चर्या का पालन कर रहा हूं, वह जैनागम व आचार्य श्री शांति सागर जी के अनुसार नहीं है। उन्होंने अपने सरल स्वभाव और मन में आई उज्ज्वलता से वशीभूत होकर आचार्य श्री शांति सागर जी से कहा कि वे अपनी चर्या से संतुष्ट नहीं हैं और पुन: दीक्षा धारण करना चाहते हैं, ताकि वे अपनी चर्या को दृढ़ कर अपना आत्म कल्याण कर सकें। आचार्य श्री के दीक्षा गुरु देवेंद्र कीर्ति जी महाराज के उक्त निवेदन से आचार्य श्री सोच में पड़ गए लेकिन गुरु की शिष्य बनने की चाह ने उन्हें अपने संकल्प पर दृढ़ रखा और निश्चय हुआ कि श्रवणबेलगोला के पंच कल्याण के अवसर पर आयोजित दीक्षा कल्याणक के शुभदिन दीक्षा दी जाएगी। पूज्य आचार्य श्री शांति सागर जी महाराज ने श्री देवेंद्र कीर्ति जी महाराज को मुनि दीक्षा प्रदान कर उनका नाम मुनि श्री सिद्धसागर जी रखा। दीक्षा कल्याणक के दिन ही एक संघस्थ क्षुल्लक श्री देवसेन महाराज ने मुनि दीक्षा ग्रहण कर अपने आफको त्याग मार्ग की ओर प्रवृत किया था। अपने गुरु को दीक्षा देकर अपने संघ में समाहित करने वाले आचार्य श्री ने बीसवीं सदी के प्रारंभ में दिगंबर को जन सामान्य में प्रचलित करने व दिगंबरत्व के प्रति जन सामान्य और प्रशासकों का नजरिया बदलने का जो कार्य किया, उसी के कारण वर्तमान समय में हमें दिगंबर मुनिराज यत्र-तत्र-सर्वत्र दिखाई दे रहे हैं। उल्लेखनीय है कि पूर्व में दिगंबर मुनियों को स्वतंत्र विहार नहीं करने दिया जाता था। इस कारण तत्कालीन समय में मुनि तो होते थे लेकिन उन्हें वस्त्र धारण कर ही बाहर निकलना होता था। मुनि श्री देवेंद्र कीर्ति भी इसी कारण दुखी थे और आचार्य श्री शांति सागर जी महाराज की चर्या से प्रभावित थे। इसी कारण उन्होंने पुन: दिगंबरी दीक्षा धारण की और स्वयं को गौरवान्वित किया। ऐसे आचार्य श्री शांति सागर जी महाराज द्वारा अनेक उपसर्गों, यातनाओं के बावजूद दिगंबरत्व की जो रक्षा की गई, उसे युगों-युगों तक याद रखा जाएगा।
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