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गोम्मट स्तुति : एक परिचय- अंतर्मुखी मुनि श्री 108 पूज्य सागर महाराज


प्रसिद्ध जैनाचार्य नेमिचंद्र सिद्धांत चक्रवर्ती ने इस स्तुति की रचना की थी। आचार्य नेमिचंद्र दक्षिण भारत के निवासी और गोम्मटेश्वर स्वामी के परम भक्त थे। इस स्तुति में उनका भक्ति-भाव रस-प्लावित हो उठा है। भावों को चित्रवत् उपस्थित करने की उनमें अपूर्व क्षमता थी। वे भक्त ही नहीं, उत्कृष्ट कोटि के कवि भी थे। प्राकृत का माधुर्य और शब्दौचित्य का ज्ञान, दोनों ने मिलकर स्तुति को अप्रतिम बना दिया है। अर्थ-गांभीर्य ने इसमें प्राण फूंके हैं। अत: पाठक इसे पढऩे के लिए विवश हो उठता है। इस भावपूर्ण स्तुति को पढक़र यह स्पष्ट हो जाता है कि रचनाकार ने श्री गोम्मेटश्वर स्वामी के पाद्-पदमों में बैठकर इसकी रचना की होगी। स्तुति का तीसरा और पांचवां छंद मूर्ति के सूक्ष्म अवलोकन को अभिव्यक्त करता है। पांचवी गाथा ‘लयासमक्कत महासरीरं’ में जिस लता का उल्लेख किया गया है, वह माधवी लता है। माधवी लता की विशेषता यह है कि वह नीचे की ओर पाद-मूल में से क्रमश: विस्तृत होकर ऊपर की ओर संकुचित होती जाती है। पंडित आशाधरजी ने ‘जय माधवी वल्लरी मंडिगात्रं’ कहकर उसका सम्मानपूर्ण उल्लेख किया है।

संपूर्ण स्तुति ‘उपजाति’ छंद में निबद्ध है। संस्कृत के ‘उपजाति’ छंद में प्राकृत की रचना कितनी भव्य हो उठी है, यह उसका प्रमाण है। एक लघु आकार में होते हुए भी स्तुति उत्कृष्ट साहित्यिक रचना का उदाहरण है, यह नि:संदेह सत्य है। इस स्तुति की रचना का अपना इतिहास है। उत्तर भारत में भीषण अकाल पड़ा तो अंतिम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु ससंघ दक्षिण भारत चले गए। वहां दक्षिण भारत में ये सब श्रमणविहार करने लगे। ई.पू.365 में उस गिरि-रचना का निर्माण हुआ, जो इतिहास-प्रसिद्ध पाटलिपुत्र-निवासी सम्राट चंद्रगुप्त के नाम से ‘चंद्रगिरि’ प्रसिद्ध हुआ। इस पर्वत पर आचार्य भद्रबाहु ने चरण-चिह्न तथा सम्राट चंद्रगुप्त से संबंधित अनेक शिलालेख पाए जाते हैं। दसवीं शताब्दी के समर-धुरंधर वीर चामुण्डराय ने भक्ति भाव से उल्लसित होकर सत्तावन फुट ऊंची, भगवान गोम्मटेश्वर की एक प्रतिमा का निर्माण कराया था। यह प्रतिमा विश्व के आठ आश्चर्यों में महान् है। इसके दर्शन करने विश्व भर से पर्यटक भारत आते हैं। आचार्य नेमिचंद्र सिद्धांत चक्रवर्ती ने अपनी रचनाओं के अंत में राजा चामुण्डराय और गोम्मट बाहुबली का एक विनय भरा उल्लेख किया है। किसी महानुभाव का कथन है कि आत्मा को परमात्मा बनाने के लिए यह आवश्यक है कि निराकार परमात्मा के पवित्र गुणों को साकार शब्दों द्वारा स्तवन, वंदन, मनन और चिंतवन करें तथा उन्हें अपने मन पर अंकित करके विकसित करने का भरसक प्रयत्न करें। गोम्मट भगवान की यह स्तुति जैन शौरसेनी प्राकृत में है। तीर्थंकर नेमिनाथ के समय शूरसेन जनपद में जो प्राकृत भाषा बोली जाती थी, उसी का नाम शौरसेनी प्राकृत है। (षड्भाषा-चंद्रिका-26 षड्विद्यासा प्राकृतीच शौरसेनी च मागधी)।

प्रथम कामदेव वीतराग गोम्मट (गोमथ) स्वामी की तीर्थ यात्रा पर प्रतिवर्ष लाखों धार्मिक यात्री आते हैं और दर्शन कर पाप दूर करके अपार आनंद का अनुभव करते हैं। गोम्मट स्वामी की उत्तुंग-विशाल नयनाभिराम प्रतिमा दस मील दूर से ही दिखाई देने लगती है। ऐसा प्रतीत होता है कि वह दसों दिशाओं की दूरता का (दशताल प्रमाण होने से मानो) अतिक्रमण कर जन-जन को ऊंचा उठने की प्रेरणा प्रदान कर रही है। प्रति बाहरवें वर्ष बाहुबली-प्रतिमा का महामस्तकाभिषेक होता है। यह समय जैन जगत् के लिए ही नहीं, बल्कि विश्व के समस्त यात्रियों के लिए मानो पूर्ण कुंभ धार्मिक पर्वों का मुकुट मणि है, जिसमें कई लाख भक्त सम्मिलित होते हैं। 1. गोम्मटेस्स - टिन-स्से (चीनी), जिसका अर्थ होता है दिव्यपुरुष। -ले. सैमुल्ल बील, ट्रैवल्स ऑफ व्हेनसांग, खंड 2, पृ. 189 -जिस प्रकार विभिन्न रंगों से युक्त वस्त्र रंग-बिरंगा होता है, उसी प्रकार कोई धनु चित्र (रंग-बिरंगे, संकीर्ण) राग से युक्त होती है। गाने में जो ज्ञाता लोग दूसरे की प्रशंता करते हैं, उनकी ही स्वानुभूति प्रसिद्ध (समादृत) है। गोम्मटेस थुदि विसट्ट-कन्दोट्ट-दलाणुयारं । सुलोयणं चन्द-समाण-तुण्डं ॥ घोणाजियं चम्पय-पुप्फसोहं । तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं ॥1॥ जिनके सुन्दर नेत्रमृणाल सहित नीलकमल की पांखुरी का अनुकरण करते हैं । जिनका मुख चन्द्र मण्डल के समान सुशोभित है और जिनकी नासिका चम्पक पुष्प की शोभा को पराजित करती है, ऐसे गोम्मटेश को मैं नित्य प्रणाम करता हूं। अच्छाय-सच्छं जलकंत-गंडं । आबाहु-दोलंत सुकण्ण-पास ।। गइन्द-सुण्डुज्जल-बाहुदण्डं । तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं ॥2॥ जिनकी देह आकाश की भांति निर्मल है, जिनके कपोल जल के समान स्वच्छ है, जिनके कर्ण पल्लव स्कन्धों तक दोलायित हैं, जिनकी दोनों उज्ज्वल-भुजाएं गजराज की सूंड के समान सुन्दर लगती है, ऐसे गोम्मटेश बाहुबली को मैं सर्वदा नमन करता हूं। सुकण्ठ-सोहा जिजाजी दिव्य सोक्खं। हिमालयुद्दाम-विसाल कन्धं ॥ सुपेक्ख-णिज्जायल सुठ्ठमज्झं । तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं ॥3॥ आपके विलक्षण कण्ठ की शोभा श्री से, जिन्होंने दिव्य शंख की शोभा सुषमा को जीत लिया है, जिनका वक्षस्थल हिमालय की भांति उन्नत और उदार है, जिनका कटि प्रदेश सुदृढ़ और प्रेक्षणीय है,ऐसे गोम्मटेश जिनेन्द्र का मैं सतत वन्दना करता हूं। विंज्झायलग्गे पविभासमाणं । सिहामणिं सव्व सुचेदियाणं ॥ तियोय संतोसय-पुण्णचन्दं । तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं ॥ 4॥ विंध्यगिरि के अग्रभाग में जो अपनी अनुपम कांति से दमक रहे हैं, विंध्याचल के पर्वत-भाग में जो तपस्या लीन हैं और सब भव्यों के लिए जो वैराग्यरूपी प्रासद के शिखर की शिखामणी हैं तथा तीन लोक के जीवों को आनन्द प्रदान करने में जो पूर्ण चन्द्रमा के समान हैं, ऐसे उन प्रथम कामदेव गोम्मटेश को मैं सदा नमोस्तु करता हूं। लयासमक्कंत-महासरीरं। भव्वावलीलद्ध सुक्तप्परुक्खं ॥ देविंदविन्दच्चिचय पायपांम्मं। तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं ॥5॥ जिसमें कामदेव के सुविशाल शरीर पर चरण से भुजाओं तक माधवी लताएं लिपटी हुई हैं, भव्यों के लिए जो कल्प-वृक्ष जैसे फल-प्रदाता हैं और देवेन्द्र-समूह जिनके चरण कमलों की अर्चना-पूजा करता है, ऐसे गोम्मटेश क्षमा-श्रवण को मैं भक्ति भाव से अनुक्षण प्रणति करता हूं। दियंबरों यो ण च भीइ जुत्तो । ण चांबरे सत्तमणो विसुद्दो ॥ सप्पादि जंतुप्फुसदो ण कंपो । तं होम्मटेसं पणमामि णिच्चं ॥6॥ जो दिगम्बर श्रमण है,सप्त-भय से विप्रमुक्त हैं, अभीत हैं, वस्त्र वल्कलादि पर आसक्त नहीं हैं और विषधर नागराजादि जंतुओं से दुरावृत्त होने पर भी जो अकम्प-अविचल है, ऐसे गोम्मटेश महायोगी का मैं नित्य नियम से नमस्कार पूर्वक ध्यान करता हूं। आसां ण ये पेक्खदि सच्छ्दि_ि । सोक्खे ण वंछा हयदोसमूलं ॥ विराय भावं भरहे विसल्लं । तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं ॥7॥ जो क्षायिक सम्यग्दृष्टि होने से क्षोभित मति वाले हैं तथा आत्मलीन होने के कारण जो बहिरंग दृष्टि से नहीं देखते, स्वदोषों के मूल मोह विनष्ट होने से जिन्हें सांसारिक सुखों की वांछा नहीं रही और अग्रज भरत के प्रति जो संज्वलन मान था, वह अब वैराग्य में परिणित हो गया है, ऐसे नि:कांक्षित गोम्मटेश के विमल व्यक्तित्व के चरणों में मैं सतत सिर झुकाता हूं॥ उपाहिमुत्तं धण धाम वज्जियं । सुसम्मजुत्तं मय मोहहारयं ॥ वस्सेय पज्जंतमुववास जुत्तं ॥ तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं ॥8॥ जो समस्त उपाधि परिग्रह से मुक्त हैं, धन और धाम का जिन्होंने अंतरंग से ही परित्याग कर दिया है, मद एवं मोह, रागद्वेष को जिन्होंने तप द्वारा जीत लिया है, जो क्षायिक भाव से स्थित हैं तथा पूरे एक संवत्सर तक जिन्होंने अखण्ड उपवास व्रत किया है, ऐसे गोम्मटेश महातपस्वी के चरणों को मन, वचन और काय से मैं निरंतर कर कमलों द्वारा इच्छ्मि करता हूं। गोम्मट भगवान की यह स्तुति जैन शौरसेनी प्राकृत में है। तीर्थंकर नेमीनाथ के समय शूरसेन जनपद में जो प्राकृत भाषा बोली जाती थी, उसी का नाम शौरसेनी प्राकृत है। (षड्भाषा-चंद्रिका-26 षड्विद्यासा प्राकृतीच शौरसेनी च मागधी)।

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