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अंतरंग की बात -अंतर्मुखी मुनि श्री 108 पूज्य सागर महाराज



श्रवणबेलगोला से मेरा रिश्ता ठीक वैसा ही है, जैसा एक पिता का अपने पुत्र और एक मां का अपने बच्चे से होता है। श्रवणबेलगोला को अगर मां की जगह रखूं तो इस मां की अंगुली पकड़ कर चला, सीखा, अनुभव प्राप्त किए और इस योग्य बन पाया कि अपने आप को समाज के सामने रख सकूं। अगर पिता के रूप में बात करूं तो पिता के रूप में स्वामी जी कर्मयोगी स्वस्तिश्री भट्टारक चारुकीर्ति की छत्र-छाया में साधना और निअध्यात्म को जाना। मेरी हर श्वास में बसा हुआ है श्रवणबेलगोला। माता-पिता की तरह मिली इस छत्र-छाया में मैं अपने आपको साधना, अध्यात्म, सामाजिक और लौकिक व्यवहार में मजबूत बना पाया। श्रवणबेलगोला की धरती और कर्मयोगी स्वस्तिश्री भट्टारक चारुकीर्ति की छत्र-छाया में संस्कार और संस्कृति के ज्ञान से, साथ वे अनुभव प्राप्त हुए, जिससे मैं अपने आपको निर्मल बना पाया और मुनि पद को प्राप्त कर सका। श्रवणबेलगोला का हर मंदिर मेरे सुख-दुख का गवाह है तो साथ ही मेरी साधना का साक्षी भी है। वहां का हर मंदिर मुझे सदैव दुख में भी मुस्कुराहट बनाए रखने का संकेत करता है। त्याग, तप को अंगीकार करने के लिए वहां का हर कण मुझे प्रेरणा देता है। जीवन के हर अच्छे कार्य की शुरुआत या कल्पना तो अब तक तो यहीं से शुरू हुई है, अंत भले ही कहीं भी हुआ हो। बच्चा अच्छे संस्कार धारण करता है या ज्ञान का अर्जन कर उसका सदुपयोग करता है और जीवन में सफलता प्राप्त करता है तो उसके पीछे सबसे अधिक मेहनत पिता की होती है। ठीक उसी तरह से मेरी सफलता के पीछे खड़े हैं स्वामी जी। उनके सहयोग के बिना सफलता मिलना लगभग नामुमकिन था। श्रवणबेलगोला के लिए जितना भी लिखा जाए, वह कम ही होगा। शायद मैं कभी पूरा लिख भी नहीं पाऊंगा क्योंकि माता-पिता के उपकार को शब्दों में कभी नहीं बांधा जा सकता। फिर भी जो कुछ थोड़ा-बहुत मैं लिख पाया हूं, वह अपना कत्र्तव्य समझ कर ही लिखा है। मेरी भावना है कि मैं अपने माता-पिता का जगत के सामने कुछ तो गुणगान कर सकूं। मैंने जो कुछ भी लिखा है, वह वही सब है, जो या तो सुन- सुनकर मन में रह गया या फिर कुछ ऐसा संकलन है, जो मेरे माता-पिता के बारे में आचार्यों और विद्वानों ने कभी लिखा था। अंत में मैं यही कहना चाहता हूं कि श्रवणबेलगोला मेरी श्वासों में बसा है, मेरी यादों में है, यही मेरी कर्म भूमि है। इसी ने धर्म के क्षेत्र में मुझे छोटे से बड़ा किया है। एक नई पहचान भी यहीं से मिली है मुझे। वैसे भी पुत्र की पहचान तो माता-पिता से ही होती है, चाहे वह कहीं भी चला जाए। बस मेरी भी यही स्थिति है। भावना है कि आगामी महामस्तकाभिषेक तक श्रवणबेलगोला पर तीन पुस्तकें लिख सकूं।

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