बाहुबली प्रतिमाएं (डॉ. सत्यप्रकाश जैन के लेख में कुछ हिस्सा ) श्रवणबेलगोला में पाई जाने वाली अन्य सैकड़ों सुंदर मूर्तियों का महत्व बड़े पहाड़ की विराट मूर्ति की वजह से अंशत: धुंधला पड़ गया है, लेकिन इसमें कुछ औचित्य भी है। यह विराट मूर्ति, जो 58 फुट ऊंची है, आकार में सारे देश में अद्वितीय है। बामियान(अफगानिस्तान) की बुद्ध की मूर्तियां बेशक गोम्मट से दुगुनी या तिगुनी ऊंची हैं। (120‘ और 175‘) लेकिन वे कणाश्म शिलाखंड में कटी नहीं हैं। रयाम्सीज-2 की मूर्ति (इजिप्ट) अक्सर गोम्मट की ऊंचाई से सदृश होती है, किन्तु वह न तो देवता की मूर्ति है और न ही निरावलंब। मेम्नान की दो विराट मूर्तियां (ईजिप्ट) गोम्मट की मूर्ति से लगभग 10‘ या अधिक ऊंची और हजार बरस पुरानी हैं, परन्तु वे एकाश्म नहीं। चाप्रोन का स्फिंक्स लभगभ 66‘ है। मगर यह मिश्र जानकर भी एक विशालखंड में बनाया हुआ नहीं। इन सभी कारणों ने ऐतिहासिक निर्माणों में ही गोम्मट विराट मूर्ति को अपूर्व बना दिया है। न्यूयॉर्क की आजादी की मूर्ति (305‘ ऊंची) और ब्ल्याक् हिल्स के अमरीकी अध्यक्षों के चट्टान-कटावे वाकई भिन्न युग में, भिन्न तकनीक से, भिन्न प्रेरणा से बने हैं। ऐतिहासिक कलावधि में दुनिया के किसी भी कलाकार ने सौंदर्यपरक परिपूर्णता पाने के लिए इतनी हिम्मत से संयोजना की और कठिनाइयों का सामना किया, जितना बड़े पहाड़ पर गोम्मट विराट मूर्ति को बनाने वाले ने किया। यद्यपि अफगानिस्तान की बामियान घाटी में बुद्ध की मूर्तियां 120 से 175 फीट तक ऊंची हैं, अपने भारत ही के मध्यप्रदेश स्थित पश्चिम निवाड़ जिले में सतपुड़ा पर्वतमाला में बड़वानी से 8 किलोमीटर दूर चूलगिरि पर्वत पर भगवान ऋषभनाथ की 84 फीट ऊंची मूर्ति प्रतिष्ठित है, विधर्मियों द्वारा भारी क्षति पहुंचाए गए ग्वालियर-किले में भी अति उत्तुंग जिन-प्रतिमाएं आज तक उत्कीर्ण हैं और मिस्र में 4000 वर्ष प्राचीन रेमेसिस द्वितीय की मूर्ति गोम्मटेश्वर मूर्ति के ही बराबर ऊंची है। किन्तु इन सभी मूर्तियों में गोम्मटेश्वर मूर्ति सदृश सहज-सौन्दर्य का अभाव है। ये मूर्तियां कमर-स्थान अथवा और भी ऊंचाई से लेकर नीचे पग-स्थल तक निराधार भी नहीं हैं। इनकी पीठ को उसी प्रस्तर-शिला का आधार मिला हुआ है, जिनमें से ये उकेरी गई हैं। पुनश्च: जैसा कि काका कालेलकर ने भी लिखा है-‘मिस्र देश में बड़ी-बड़ी मूर्तियां हैं, लेकिन वे ऐसी अकडक़र बैठी हैं, राजस्व के सब लक्षणों और चिह्नों से युक्त होते हुए भी ऐसी मालूम पड़ती हैं, मानो जबरदस्ती बैठने के लिए बाध्य की गई हों।’ श्रीगोम्मटेश्वर-प्रतिमा जैसी सहजता उनमें नहीं। पीठ से निराधार होने एवं अपूर्व सौन्दर्य के कारण 57 फीट ऊंची श्रीगोम्मटेश्वर-प्रतिमा ही विश्व की सबसे ऊंची, अपूर्व, अद्वितीय, सुन्दर, सलोनी मूर्ति मानी जाती है। भगवान बाहुबली के इस अभूतपूर्व दुर्द्धर तपश्चरण के रोमांचक वर्णन प्राचीन एवं मध्यकालीन साहित्य में प्रभूत मिलते हैं। इतना ही नहीं, उनकी स्मृति में भगवान बाहुबली की जो मूर्तियां निर्मित हुईं, उनमें उन्हें ध्यानस्थ मुद्रा में अविचल खड्गासीन प्रदर्शित किया गया है। इनमे इर्द-गिर्द दीमकों ने ऊंची बांबियां बना लीं, माधवी आदि लताएं उनके पैरों, हाथों, कटि आदि के चहुंओर लिपटती बढ़ती गईं। शरीर पर सर्प, बिच्छू, छिपकली आदि अनेक जन्तु रेंगने लगे। अनुश्रुति है कि महाराज भरत ने ही उनकी इस रूप की सवा-पांच सौ उश्रंग प्रतिमा उस तप:स्थान पर ही निर्मापित कराकर प्रतिष्ठित की थी। कालान्तर में उक्त मूर्ति को कुक्कुट सर्पों ने ऐसा आच्छादित कर दिया कि वह लोक के लिए अदृश्य हो गईं। भगवान बाहुबली की मूर्तियां प्राय: इसी रूप एवं मुद्रा में निर्मित हुईं और उन्हीं से वे पहचानी जाती हैं। ध्यानस्थमुद्रा और खड्गासीन तन पर लिपटी माधवी आदि लताएं तो सर्वत्र प्रदर्शित हैं, कुछ में बांबियां भी प्रदर्शित हैं, कुछ में शरीर पर रेंगते सर्प, बिच्छू आदि जन्तु भी अंकित हैं। एक मूर्ति के साथ यक्ष-यक्षिणी अंकित किए गए प्रतीत होते हैं, यद्यपित बाहुबली तीर्थंकर नहीं थे और यक्ष-यक्षिणी अंकन तीर्थंकर प्रतिमाओं के परिकर में किए जाने का विधान एवं परम्परा है। कर्नाटक की चार प्राचीन मूर्तियों में श्रवणबेलगोला वाली उश्रराभिमुखी है, कार्कल की पश्चिमाभिमुखी, वेणूर की पूर्वाभिमुखी और श्रवणप्पगिरी की दक्षिणाभिमुखी है। कुछ बाहुबली मूर्तियों में उपासक-उपासिकाएं भी अंकित हैं, किन्तु चार मूर्तियां-श्रवणप्पगिरी, घुसई, देवगढ़ और महोबा की ऐसी हैं, जिनमें बाहुबली के दोनों ओर एक-एक स्त्री खड़ी है, जो उनके मुख की ओर देखती, कुछ सम्बोधन-सा करती हुई तथा उनके शरीर पर लिपटी लता आदि हटाती हुई-सी लगती है। एक किंवदंती है कि जब एक वर्ष के आतापन योग से भी बाहुबली के कैवल्य की प्राप्ति नहीं हुई तो समवशरण में भगवान ऋषभदेव की दिव्यध्वनि से उसका कारण जानकर महासती ब्राह्मी तथा सुन्दरी ने आकर भाई को संबोधित किया था और कहा था कि ‘हे भ्रात्! मानरूपी गज से नीचे उतरो और स्वकल्याण करो।’ संभव है कि इसी घटना का वह मूर्तांकन हो। चिरकाल तक यह समझा जाता रहा कि बाहुबली मूर्तियों में श्रवबेलगोलस्थ गोम्मटेश्वर ही सर्वप्रचीन है और अन्य समस्त बाहुबली प्रतिमाएं उसके पश्चात् और उसी के अनुकरण पर निर्मित हुईं। किन्तु यह धारणा मिथ्या सिद्ध हुई। उसके पूर्व की भी अनेक बाहुबली मूर्तियां उपलब्ध हैं-चम्बल क्षेत्र में मंदसौर जिले के घुसई स्थान से प्राप्त बाहुबली की मूर्ति 4थी-5वीं शती ई. की अनुमान की गई हैं, बादाम की 6-7वीं शती की, एलोरा की 8वीं-9वीं शती की, हुमच्य की गुडुरवसदि में तोलपुरुष विक्रम सान्तर द्वारा प्रतिष्ठापित बाहुबली मूर्ति 898 ई. की है। महोबा, देवगढ़, श्रवणप्पगिरी आदि की कई मूर्तियां लगभग 10वीं शती की हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि विशिष्ट शैली में बाहुबली मूर्तियों के निर्माण की परपंरा श्रवणबेलगोला की मूर्ति के निर्माणकाल से 5-6 शताब्दियों पूर्व तक पहुंच जाती है। दक्षिण कर्नाटक में कार्कल में सन् 1432 में 41.5 फीट उत्तुंग प्रतिमा जैनाचार्य ललितकीर्ति जी की प्रेरणा से प्रतिस्थापित हुई। वेणूर में चारुकीर्ति पं. की प्रेरणा से सन् 1604 में 35 फीट ऊंची प्रतिमा स्थापित हुई। मैसूर के पास एक ऊंचे टीले का उत्खनन करने पर बाहुबली की 18 फुट ऊंची प्रतिमा प्राप्त हुई, जिसे गोम्मटगिरि कहा जाता है। कर्नाटक के बीजापुर जिले के बादामी पर्वत शिखर के उत्तरी ढाल पर स्थित चार गुफा मंदिरों में से चौथे मंडप के कोने में बाहुबली की 7 फीट, 6 इंच ऊंची मूर्ति है। डेढ़ फीट ऊंची कांस्य मूर्ति प्रिंस ऑफ वेल्स संग्रहालय, मुंबई में है। एहोल के इंद्रसभा नामक बत्तीसवें गुफा मंदिर में 8वीं-9वीं शताब्दी का भगवान बाहुबली का एक सुंदर चित्र है। कर्नाटक के गोलकुंडा के खजाना बिल्डिंग संग्रहालय में 10वीं शताब्दी की 173 मीटर ऊंची काले बेसाल्ट पाषाण की मूर्ति है। पत्तनचेरुवे से प्राप्त और हैदराबाद संग्रहालय में भगवान बाहुबली की 12वीं शताब्दी की एक मूर्ति प्रदर्शित है, जिसमें लताएं कंधों से भी ऊपर मस्तक के दोनों ओर पहुंच गई हैं। इस मूर्ति में श्रीवत्स लांछन होने से यह उत्तर और दक्षिण की श्रृंखला को जोड़ती है। ऊपर स्वास्तिक और कमालाकृति प्रभामंडल है, जो अन्य बाहुबली मूर्तियों में अप्राप्य है। दक्षिण में एलोरा की गुफाओं में इंद्र सभा नामक द्विमंजिले सभागृह में बाहरी दक्षिणी दीवार पर भी बाहुबली की एक मूर्ति उत्कीर्ण है। जूनागढ़ संग्रहालय में नौंवी शताब्दी की एक मूर्ति प्रदर्शित है। खजुराहो में पाश्र्वनाथ मंदिर की बाहरी दक्षिणी दीवार पर दसवीं शताब्दी की एक मूर्ति उत्कीर्ण है। लखनादौन(सिवनी), मध्यप्रदेश में सिद्धेश्वर भगवान बाहुबली मंदिर है। इस मंदिर की मूर्ति 1979 में कुएं से प्राप्त हुई थी। लखनऊ संग्रहालय में दसवीं शताब्दी की बाहुबली मूर्ति है, जिसका मस्तक और चरण खंडित हैं। देवगढ़ में बाहुबली की 6 मूर्तियां हैं। बिलहारी जिला जबलपुर (मध्य प्रदेश) में एक शिलापट्ट पर बाहुबली की एक मूर्ति उत्कीर्ण है। बीसवीं शताब्दी की ऊंचे माप की नई मूर्तियों में धारा (बिहार) के जैन बालाश्रम में स्थापित मूर्ति, उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद में स्थापित बाहुबली की मूर्ति, सागर मध्य प्रदेश के वर्णी भवन में स्थापित मूर्ति, गोम्मटगिर इंदौर में 21 फीट ऊंची मूर्ति, कुम्भोज बाहुबली में स्थापित मूर्ति, सोनागिर, हस्तिनापुर, मथुरा चौरासी, श्री महावीरजी, पंचायती मंदिर दिल्ली, दिल्ली गेट मंदिर दिल्ली, कोथली आदि स्थानों पर बाहुबली की स्थापित मूर्तियां उत्तर-दक्षिण के मध्य सेतु का कार्य करती हैं। बाहुबली को भरत चक्रवर्ती के साथ ऋषभदेव की परिकर मूर्तियों के रूप में प्रस्तुत किया गया है। बोरीवली में पोदनपुर त्रिमूर्ति मंदिर, हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप में जैन मंदिर, जबलपुर के बिलहरी गांव के बाहर जैन मंदिर, देवगढ़, खजुराहो, ग्वालियर की गुफाओं में भी त्रिमूर्ति (ऋषभदेव, भरत, बाहुबली) मिलती हैं। पीतल की त्रिमूर्ति 14वीं शताब्दी की नई दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में भी है। उड़ीसा के बालासौर जिले में चरमपा ग्राम से प्राप्त जैन मूर्तियों में भी त्रिमूर्ति मिलती है, जो अब राज्य संग्रहालय भुवनेश्वर में प्रदर्शित है। बाहुबली की गृहस्थ अवस्था की भरत से युद्ध करते समय का चित्रांकन, जो मूलत: साराभाई नवाब के पास थी, अब मुम्बई के कुसुम और राजेय स्थली के निजी संग्रहालय में है। दक्षिण की मूर्तियों में चरणों के पास सांप की बांबियां (बमीटें) हैं, जिनमें से सांप निकलते हुए दिखाए गए हैं, किन्तु उत्तर की मूर्तियों में प्रभाष पाटील की मूर्ति को छोडक़र संभवत: किसी और में सांप की बांबियां नहीं दिखाई गई हैं। उत्तर भारत की मूर्तियों में बाहुबली की बहिलों-ब्राह्मी और सुन्दरी का अंकन नहीं है। जहां भी दो स्त्रियां दिखाई गई हैं, वे या तो सेविकाएं हैं या फिर विद्याधरियां, जो लता-गुच्छों का अंतिम भाग हाथ में थामे हैं, मानो शरीर पर से लताएं हटा रही हैं। एलोरा की गुफा की बाहुबली मूर्ति में जो दो महिलाएं अंकित हैं, वे मुकुट और आभूषण पहने हैं। वे ब्राह्मी और सुन्दरी हो सकती हैं। बिलहरी की दो मूर्तियों में से एक में दो सेविकाएं, जो विद्याधरी भी हो सकती हैं, लतावृन्त को थामे हुए हैं। ये त्रिभंग मुद्रा में हैं। मूर्ति के दोनों ओर ओर कन्धों के ऊपर जिन-प्रतिमाएं हैं। दूसरी मूर्ति में भक्त-सेविकाएं प्रणाम की मुद्रा में लता-गुच्छ थामे दिखाई गई हैं। दिलवाड़ा, राजस्थान की विमलबसहि, शत्रुंजय(गुजरात) के आदिनाथ मंदिर और कुम्भारिया (उत्तर गुजरात) के शांतिनाथ मंदिर में लगभग 11-12वीं शताब्दी की धोती पहने बाहुबली की मूर्तियां भी प्राप्त होती हैं। जैसलमेर के ऋषभदेव जी के मंदिर में भरत और बाहुबली की कायोत्सर्ग मुद्रा में संवत् 1536 की मूर्तियां हैं। [if !supportLineBreakNewLine] [endif]