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शब्दों का उपयोग क्यों


जगत्गुरु जगत्गुरु शब्द धर्मगुरु के अर्थ में प्रयुक्त शब्द है। यह कर्नाटक की सांस्कृतिक परंपरा है और प्राय: सभी मठाधीशों जैनेतरों पर भी लागू है। जैन भट्टारकों को जगत्गुरु इसलिए कहा जाने लगा ताकि वे अन्य संप्रदायों के मठाधीशों की तुलना में कम न बैठें। इसके साथ सार्वभौम गौरव की भावना जुड़ी हुई है। कर्मयोगी कर्मयोगी संबोधन 1981 की देन है। चारुकीर्ति, भट्टारक आदि भट्टारकों के लिए भी प्रयुक्त है। अत: कोई भेद रेखा, कोई स्वतंत्र पहचान आवश्यक थी। वर्ष 1981 के महामस्तकाभिषेक में समाज ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा जी द्वारा यह उपाधि श्रवणबेलगोला के भट्टारक को प्रदान की। स्वस्तिश्री स्वस्तिश्री उस व्यक्ति का संबोधन हो सकता है, जो प्राणीमात्र के कल्याण में संपूर्ण अप्रमत्तता से प्रतिपल समर्पित है। जो कदम-कदम पर दूसरों के सम्मान का ध्यान रखता है, जो स्वस्ति संपन्न है और दूसरों की शोभाश्री का अनुक्षण खयाल रखता है, वही व्यक्ति स्वस्तिश्री कहलाने के योग्य है। भट्टारक भट्टारक शब्द अपने निर्वचन में बड़ा भव्य है। जो धर्म-मार्ग के प्रेरक थे, वे भट्टारक कहलाए-धर्ममार्गे आरक: प्रेरक: इति भट्टारक:। भट्टारक मूलत: धर्म के प्रामाणिक/ आधिकारिक व्याख्याकार थे। उनका दर्जा न्यायाधीश जैसा था। वे विद्वान थे। मुनि परंपरा के लोप के उपरांत उनकी जिम्मेदारी बढ़ गई। आचार्य शांतिसागर जी महाराज के साथ मुनि परंपरा पुनर्जीवित हुई। जब मुनि-परंपरा सशक्त/ सार्थक होती है, तब प्राय: भट्टारकों की आवश्यकता नहीं पड़ती। हां, दिगंबर मुनि विदेश नहीं जा सकते, ऐसे में भट्टारकों की भूमिका बनती है। चारुकीर्ति श्रवणबेलगोला के भट्टारक का दीक्षा पूर्व नाम चंद्रकीर्ति था। उसके बाद चारुकीर्ति हुआ। यह होयसल राजवंश की देन है, राजकीय सम्मान है। भट्टारकों के विरुद के रूप में यह 12वीं शताब्दी में जुड़ा। यह नाम रखना परंपरा है। फिर भी कीर्ति की चारुता और निष्कलंकता का ध्यान तो रखना ही होता है। स्वामी स्वामी शब्द दक्षिण का आंचलिक शब्द है। पहले नाम लेकर पुकारने की परंपरा नहीं थी। यह संबोधन सामान्यत: काम में आता था। यह आदर/ सम्मानसूचक संबोधन है। [if !supportLineBreakNewLine] [endif]

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