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चंद्रगिरि पर भद्रबाहु स्वामी और चन्द्रगुप्त मौर्य का आगमन- अंतर्मुखी मुनि पूज्य सागर महाराज


श्रवणबेलगोलाके चन्द्रगिरि पर्वत के प्राचीन नाम तो कटवप्र, तीर्थगिरी, ऋषिगिरी, छोटा पहाड़, नाभिक पहाड़, चिक्क बेट्टा आदि हैं लेकिन मुनि श्री चंद्रगुप्त मौर्य के कारण इस पर्वत का नाम चंद्रगिरि पर्वत ही पड़ गया। अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी चंद्रगुप्त सहित बारह हजार मुनियों के साथ चंद्रगिरि पर्वत पर आत्म साधना करने आए थे। उत्तर भारत की उज्जयनी नगरी में जब बारह वर्षीय का अकाल पड़ा, उसी समय अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी ने अपने ज्ञान से जान लिया कि आने वाले समय में यहां पर अकाल पडऩे वाला है। उसी समय वह अपने बारह हजार शिष्यों के साथ दक्षिण की ओर विहार कर अपनी आत्मसाधना का केंद्र चंद्रगिरि पर्वत को बनाकर शिष्यों के साथ आत्म साधना करने लगे। चंद्रगिरि पर्वत पर आत्मसाधना करते करते अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी को जब अपने ज्ञान से पता चला कि अब उनकी उम्र कम रह गई है तो उन्होंने अपने शिष्य विशाखाचार्य को अपना आचार्य पद दे कर उन्हें तमिल देश(वर्तमान का तमिलनाडू ) की ओर विहार करने की आज्ञा दे दी। मात्र चंद्रगुप्त मौर्य, जो अपना राज्य छोड़ अपने पुत्र को गद्दी पर बैठाकर साथ आए थे, बाद में मुनि दीक्षा धारण कर जो मुनि चन्द्रगुप्त बन गए थे, वहीं मात्र गुरु आज्ञा से चंद्रगिरि पर्वत पर अपने गुरु अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी के पास सेवा करने रुक गए। भद्रबाहु स्वामी चंद्रगिरि पर्वत पर एक छोटी सी गुफा को अपनी साधना की स्थली बनाकर आत्म साधना में मग्न हो गए। साधना करते-करते उस गुफा में उनका समाधिमरण हुआ। भद्रबाहु स्वामी के साथ रुखे मुनि चंद्रगुप्त ने अपने गुरु अंतिम श्रुतकेवली स्वामी के चरण वन्दना करते-करते 12 वर्ष चंद्रगिरि की गुफा में निकाल दिए। मुनि चंद्रगुप्त जब आहारचर्या को वहीं जंगल में जाते तो उन्हें आहार मिल जाता था। एक दिन जब वह आहार कर आए तो उन्हें याद आया कि कमंडल तो वह आहार वाले स्थान पर भूल आए हैं तो वह वापस लेने गए तो कमंडल एक पेड़ पर टंगा हुआ था। दूर-दूर तक कोई नगर नहीं दिख रहा था। तब पता चला कि अब तक देवताओं ने आहार दान दिया है। यह सब गुरु भक्ति का ही फल था। चन्द्रगिरि पर्वत पर भद्रबाहु गुफा में आज भी हमें भद्रबाहु स्वामी के चरणों की वन्दना करने का अवसर प्राप्त होता है। कहा जाता कि अगर गुरु पूर्णिमा पर यहां बैठकर विशेष साधना करते हैं तो आज भी अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी के साधना के कण का हमें स्पर्श होता है। चंद्रगुप्त मुनि के नाम से ही पर्वत का नाम बाद में चन्द्रगिरि पर्वत हुआ और साथ में ही चंद्रगिरि पर्वत पर एक मन्दिर(बसदी) का नाम भी चन्ं्रगुप्त बसदी है। इन दोनों गुरु-शिष्य का वर्णन प्राचीन शास्त्र में विस्तार से दिया गया है और श्रवणबेलगोला के शिलालेखों में भी मिलता है।

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